‘योग’ शब्द ‘युज समाधौ’ आत्मनेपदी दिवादिगणीय धातु में ‘घञ्’ प्रत्यय लगाने से निष्पन्न है। इस प्रकार ‘योग’ शब्द का अर्थ हुआ- समाधि अर्थात् चित्त वृत्तियों का निरोध । योग में हम दिखायेँ कि आत्मा और परमात्मा के विषय में योग कहा गया है।
* पतंजली ( योग दर्शन ) के अनुसार :
योगश्चित्तवृत्त निरोध : (1/2) अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।
* सांख्य दर्शन के अनुसार :
पुरुषप्रकृत्योर्वियोगेपि योगइत्यमिधीयते। अर्थात् पुरुष एवं प्रकृति के पार्थक्य को स्थापित कर पुरुष का स्व स्वरूप में अवस्थित होना ही योग है।
* विष्णुपुराण के अनुसार :
"योग" संयोग इत्युक्तः जीवात्म परमात्मने। अर्थात् जीवात्मा तथा परमात्मा का पूर्णतया मिलन ही योग है।
* भगवद्गीताके अनुसार :
सिद्दध्यसिद्दध्यो समोभूत्वा समत्वंयोग उच्चते । (2/48) अर्थात् दुःख-सुख, लाभ-हानी , शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्दों में सर्वत्र समभाव रखना योग है।
* भगवद्गीता के अनुसार :
तस्माद्दयोगाययुज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् । अर्थात् कर्त्तव्य कर्म बन्धक न हो, इसलिए निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्त्तव्य करने का कौशल योग है।
* आचार्य हरि भद्र के अनुसार :
मोक्खेण जोयणाओ सव्वो वि धम्म ववहारो जोगो । मोक्ष से जोड़ने वाले सभी व्यवहार योग है।
* बौद्ध धर्म के अनुसार :
कुशल चितैकग्गता योग । अर्थात् कुशल चित्त की एकाग्रता योग है।
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