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जीभ संयम



जिभ्या का विषय है रस । रस-लोलुप व्यक्ति कभी ब्रह्मचर्य पालन नहीँ कर सकता । मनुष्य की रस-लोलुपता के कारण ही उसके मन मेँ विविध प्रकार के विकल्प एवं विकार पैदा होते हैँ । इसलिये ब्रह्मचर्य के पालन के लिए रस-संयम और भोजन संयम परमावश्यक है । जहाँ रस होता , वहाँ बाकी सभी विषय मौजुद होते हैँ । रस से ही रूप , गंध , और स्पर्श को भी उत्तेजना मिलती है । यही कारण है कि भारतीय धर्म-शास्त्रोँ मेँ ब्रह्मचर्य की साधना करनेवाले साधकोँ के लिए सरस पदार्थोँ के सेवन का कठोरता के साथ निषेध किया गया है ।
इसके अतिरिक्त खटाई , मिठाई , शराब , चाय , कॉफी , तम्बाकु , खैनी , बीड़ी , सिगरेट और लाल मिर्च भी ब्रह्मचर्य के लिए घाटक सिद्ध हो सकता है ।
मांस , मच्छली और अंडा तो ब्रह्मचर्य के लिए निषेध तो क्या यह किसी मनुष्य को न खाना चाहिये और न मारना तथा पकाना चाहिये ।
साधु जन को चाहिये कि वे स्वाद-रसोँ की आसक्ति मेँ न पड़े । स्वतः सरलता से समयानुसार जो भी कुछ सुपाच्य एवं शुद्ध-सात्विक भोजन मिल जाए , उसे प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण करेँ । रूखे-सूखे भोजन को स्वादहीन समझकर अलग न करे , अर्थात् उसे ठुकराए नहीँ अपितु समभाव से सानंद ग्रहण करे ।


जीभ स्वाद के कूप मेँ ,
जहां हलाहल काम ।
अंग अविद्या ऊपजै ,
जाय हिये ते नाम ॥

यह भी समझना चाहिए कि रूखा-फीका सुपाच्य शुद्ध भोजन सदैव लाभदायक होता है । वह स्वादिष्ट कहे जाने वाले विभिन्न पकवानोँ एवं मिष्ठानोँ से कहीँ अधिक गुणकारी , स्वास्थवर्धक एवं सुखदायी होता है । किसी भी संत-साधक के भक्ति-साधना संपन्न जीवन मेँ तो वह और भी अधिक महत्वपूर्ण सिद्ध होता है । स्वादासक्ति को छोड़कर सहज सामान्य-स्थिती मेँ जीना ही श्रेष्टकर है ।
सद्गुरु कबीर साहेब कहते हैँ कि " प्रारब्ध के अनुसार प्राप्त अपना रूखा-सुखा खाकर , संतोषरूपी शीतज जल पीओ , किंतु दूसरोँ की चिकनी-चुपड़ी रोटी को देखकर जी मत ललचाओ ।" यथा -
रूखा सुखा खाय के ,
ठंडा पानी पीव ।
देखी पराई चूपड़ी ,
मत ललचावै जीव ॥
जहाँ तक विभिन्न रसोँ के पीने के स्वाद की बात है तो समस्त सांसारिक-विषयोँ के रस विष रूप ही हैँ , उन सबसे अलग हटकर केवल हरि-रस सर्वोतम है ।
जो कोई पंचामृत आवै ।
ताहि देख नहिँ हरष चढ़ावै ॥
तजै न रूखा साग अलूना ।
अधिक प्रेम सो पावै दूना ॥
इसलिए जो कोई ( दूध , दही , शहद , एवं शक्कर के मिश्रण से बने ) पंचामृत को खाने के लिए आए तो उसे देखकर अपने मानस-मन मेँ हर्ष एवं रुचि नहीँ बढ़ाना चाहिए । और रूखे-सुखे साग आलू का त्याग न करे , अपितु उसे दूने प्रेम के साथ पेट-भर खाना चाहिए ।

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