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गर्भधान संस्कार की जानकारी (Rite conception)
या
गर्भधान संस्कार (Rite Gestation) किसे कहते है ?

गर्भधान संस्कार (Rite conception)

वैसा संस्कार जो प्रथम संस्कार है
जो किसी विवाहित स्त्री पुरूष अपने-अपने शास्त्र मेँ नियम कानुन के द्वारा एक-दुसरे से संबंध स्थापित (संभोग) करने हेतु नियम कोगर्भधान संस्कारकहा जाता ।


कलयुग मेँ काम (sexual sence) की प्रबलता इतनी बढ़ गया है की किसी व्यक्ति संस्कार का सहारा नहीँ लेता तथा सीधे संबंध स्थापित करता अर्थात्‌ आनांद प्राप्ति के लिए संभोग करता । जिसके कारण जो संतान होता है वे उनके अंत का मददगार नहीँ होता है एवं माता - पिता से ज्यादा व्याभिचारी होता है ।
इस संस्कार के द्वारा आप गुणी और सुन्दंर संतान पा सकेगेँ जो अंत मेँ साथ देगा परंतु इसके लिए निचे लिखे संस्कारोँ ध्यान से समझकर करारी से पालन करेँ ।
अगर 9 माह एवं कुछ वर्ष और परिश्रम करने से मेरा 100 वर्ष जिँन्दगी सुहाना होता तो क्या इसे पालन नहीँ करना चाहियेँ ?
जो पालन करेगा वो इसका लाभ उठायेगा ।


गर्भधारण संस्कार

संस्कार जन्म के पहले से अर्थात्‌ जब आप जिस समय जिस विचार से संभोग करता उसी समय आपके संतान मेँ संस्कार पैदा होती है ।
संतान वीर , साहसी , हिम्मतगर , पवित्र एवं सर्वथा उन्नति-शील हो उसके लिए प्रथम संस्कार गर्भा धारण संस्कार का विशेष महत्व है । माता के गर्भ मेँ संस्कार के साथ बीज के रूप मेँ शिशु का प्रतिष्ठान होना गर्भाधारण संस्कार है । इस संस्कार के पालन से गर्भदोष निवारण , क्षेत्र मार्जन तथा वीर्य सम्बन्धित विकार दूर होता है ।
स्त्री के गर्भाशय से स्वभाव से ही आर्तव या रजः का स्राव हुआ करता । आर्तव स्राव के प्रथम दिन से सोलहवेँ दिन तकऋतुकाल कहा जाता है । रजस्वला स्त्रियोँ के लिए शास्त्रोँ मेँ विशिष्ट नियम प्रतिपादित है । उनकी अवहेलना मेँ गर्भ मेँ दोष विकार आ जाते हैँ । रजस्वला स्त्री के चौथे दिन शुद्ध होने पर स्नान के बाद नया वस्त्र एवं सुन्दर आभुषण पहनकर पति के दर्शन करने चाहिए । ऋतु स्नान के उपरान्त स्त्री जिस प्रकार के पुरुष को देखती है , उसी प्रकार के पुरुष के समान पुत्र उत्पन्न करती है । मासिक धर्म के प्रथम 4 दिन , 11वेँ एवं 13वेँ दिन संभोग (एक दुसरे से संबंध स्थापित करना ) नहीँ करेँ । इन दिनोँ के बाद आप गर्भधारण कर सकते । अगर इन दिनोँ मेँ रविवार , अष्टमी , एकादशी , चतुर्दशी , संक्रांति , त्रयोदशी , वनक्षेत्रोँ मेँ मध्या रेवती , मूल तथा मासोँ मेँ कर्क राशी मेँ सुर्य के रहते हुए स्त्री गमन वर्जित ( मना ) है । संध्याकाल मेँ गर्भाधारण करने से अशुभ संतान उत्पन्न होते है । कुम्भकर्ण , हिरण्यकश्यप , हिरण्याक्ष , रावण आदि दुष्टोँ की उत्पत्ति संध्याकाल मेँ गर्भाधारण के कारण ही हुई थी । अशुभ रीति से गर्भाधारण से अशुभ संतान उत्पन्न होती है । "अनिन्दिय विवाह से अनिन्दिय संतान उत्पन्न होती है ।" जिस भाव से योनी मेँ वीर्य डाला जाता है , उसी भाव से संतान उत्पन्न होते है । " रजस्वला स्त्री के साथ गमन करने से बचना चाहिए । चरक-संहिता मेँ इसे अलक्ष्मीकारक कहा है । पुरुष की बुद्धि , तेज , बल , चक्षु व आयु का नाश रजस्वलागामी होने से होता है ।"

रात्री के प्रथम प्रहर मेँ गर्भधारण होने पर गर्भस्थ संतान ठीक ठाक होता है । परंतु यह समय बहुत अच्छा नहीँ होता है । चर्तुथ प्रहर मेँ गर्भधारण होने पर संतान दीर्घायु तथा निरोग रहती है । (¤) मासिक धर्म के चतुर्थ , अष्टम तथा द्वादश रात्रि मेँ सहवास करने से पुत्र संतान का जन्म होता है । (¤) मासिक धर्म के पंचम , सप्तम , नवम्‌ तथा एकादश रात्रि मेँ सहवास करने से कन्या संतान का जन्म होता है । समरात्रि मेँ पुरुष का वीर्य स्त्री के रजः की अपेक्षा अधिक रहता है । इसी कारण पुत्र संतान की प्राप्ति होती है । उसी प्रकार असम रात्रि मेँ रजः की मात्रा पुरुष के वीर्य की अपेक्षा अधिक होती है । जिसके कारण कन्या की प्राप्ति होती है । सोमवार , वृहस्पतिवार एवं शुक्रवार की रात्रि मेँ सहवास बहुत अच्छा रहता है । मंगलवार के रात्रि मेँ गर्भधारण होने पर मृत संतान होती है । सुबह , दोपहर एवं शाम के समय सहवास करना हानिकारक होता है ।

जिस समय शरीर पूर्ण रूप से स्वच्छ हो , मन मेँ किसी प्रकार की कोई बुरी विकार न हो , भोजन आधा पच गया हो पर भूख न लगी हो , ऐसे समय मेँ सहवास करना उचित होता है । परंतु पखाना , पेशाब , भुख प्यास तथा मन मेँ बुरे विचार हो ऐसे समय मेँ सहवास करना उचित नहीँ है । गर्भावस्था के समय धर्म एवं सतचिन्ता करने से संतान धार्मिक तथा सुखी होता है । गर्भवती स्त्री को क्रोध , हिँसा , झुठ बोलना , अन्यायपूर्ण व्यवहार नहीँ करना चाहिए क्योँकि यह सभी अवगुण संतान मेँ भी आ जाते है । अतः गर्भवती स्त्री को मात्र नौ महिने कष्ट करेँ अर्थात्‌ आराम से काम करे , ज्यादा किसी से ना बोले , किसी से मजाक नहीँ करेँ यहा से भी सेक्स की भावना या ज्यादा वार्त्तालाप न करेँ तथा गर्भवति होने पर सहवास न करे और इस बारे मे सोचे सिर्फ आप अपने ईश्वर का ध्यान करते रहे । रजस्वला स्त्री को रजनिःसारण के दिन से लेकर तीन या सात दिन तक स्नान करना उचित नहीँ है । स्नान करने से शरीर का दुषित रक्त बाहर ना जाकर विभिन्न प्रकार के रोगोँ की सृष्टि करता है । यह रक्त स्वास्थ की दृष्टि से बहुत हानिकारक होता है । इस समय सहवास करने से बहुत क्षति होती है । इस समय सहवास करने से भयंकर रोग होता है । यहाँ तक कि पुरुष नपुंसक हो सकता है । इस समय सहवास करने से यदि गर्भधारण होता है । तो वह संतान अल्पायु और विकलांग होता है । रजस्वला स्त्री को शाकाहारी भोजन करना चाहिए । गर्भधारण के चौथे महीने मेँ गर्भस्थ संतान का अंग-प्रत्यंग बनने लगता है । इस समय माँ जिस प्रकार भाव मन मेँ लाएगी , वही विचार संतान भी पाएगा । चौथे महीने से गर्भवती स्त्री जो खाने या देखने की इच्छा रखती है , उसे पूर्ण न होने पर संतान की क्षति हो सकती है । गर्भावस्था मेँ जो स्त्री प्रसवकाल तक शारीरिक परिश्रम करती है , प्रसव के समय उसे अधिक कष्ट नहीँ होता ।

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