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अखंड ब्रह्मचारी



भगवान् वेदव्यास जी के पुत्र श्री शुकदेव मुनि ऐसे ही पूर्ण रूपेण मन को वश किये हुए अखण्ड बालब्रह्मचारी थे । वे बचपन से ही अपना गृह त्यागकर विशाल विश्व ( अरण्य ) मेँ नग- धड़ग विचरण करने लगे । इधर व्यासदेव जी महाराज पुत्र-वियोग मेँ उन्हेँ खोजने पिछे-पिछे चल पड़े । जब वे एक सरोवर के पास से जा रहे थे , तो वहाँ कुछ अप्सराएँ , जो स्वच्छन्द जल-क्रीया मग्न थी , लज्जित हो गयीँ और शीध्र ही अपने-अपने वस्त्र धारण कर लिये ।
व्यासदेव जी ने कहा -
निस्संदेह , यह एक आश्चर्य की बात है । मैँ वृद्ध हुँ और वस्त्र धारण किये हुँ , फिर भी आप लोगोँ ने शर्म खाकर वस्त्र धारण कर लिये । जबकि मेरा युवक पुत्र इस मार्ग सेँ नंग-धड़ंग उन अवस्था मेँ गया , तफ आप सब शांत तथा अप्रभावित रही ? इस पर अप्साराओँ ने उत्तर दिया -
पूज्य ऋषिवर ! आपके पुत्र को स्त्री-पुरुष का भेद-ज्ञान नहीँ है , किंतु आपको तो ज्ञान है ।
क्या बेजाड़ बात कहि अप्सराओँ ने ! यथार्थ मेँ , ब्रह्मचारी न तो कोई खास उम्र मेँ हुआ जाता है और न ही बाहरी आवरण ढकने मात्र से , बल्कि जिसने अंदर से अपने मन को जीत लिया है , वही एकमात्र शुद्ध ब्रह्मचारी है । वास्तव मेँ मन की साधना ही सच्ची साधन

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