Old school Easter eggs.
× सावधानी! इस ब्लॉग पर बहुत भद्दा प्रचार किया जा रहा है इसलिए हमलोग नया वेबसाइट बना लिया हूँ जो 5 सेकण्ड्स में खुलेगा आयुर्वेद, योग, प्राणायाम को अपनाए और स्वस्थ रहें अध्यात्म की राह पर चलने की जरूर प्रयास करें।

नेत्र संयम



नेत्र संयम ब्रह्मचर्य पालन का प्रथम सोपान है । नेत्र-संयम का अर्थ है -
नेत्र से सुन्दर और आकर्षण वस्तु देखकर भी उस वस्तु मेँ आसक्ति और लालसा उत्पन्न न होने देना । मनुष्य के मन मेँ प्रसुप्त विकार और वासना को जागृत करने के लिए नेत्र सबसे बलवती इन्द्रिय है । रूप को देखना इसका मुख्य कार्य है । रूप कैसा भी क्योँ न हो , उसे देखने की लालसा प्रायः प्रत्येक मनुष्य के मन मेँ बनी रहती है । रूप-दर्शन की इस लालसा और आसक्ति को जीतना ही नेत्र-संयम है । यह नेत्र का ब्रह्मचर्य है ।
मनुष्य की वासना किसी भी सौँन्दर्य को देखते के पश्चात् भोग मेँ परिणत हो जाती है । इस नेत्र-वासना ने बड़े-बडोँ को विकार की खाई मेँ गिरा दिया है । नेत्र-वासना ने केवल पतिँगोँ को ही भस्म नहीँ किया , वरन् बड़े-बड़ोँ विद्वानोँ , योगियोँ और सदाचारियोँ को भी पतन के गड्ढे मेँ ढकेलकर सर्वनाश तक पहुँचा दिया है । अतः इसपर विजय प्राप्त करने के लिए अपने नेत्र की इस प्रवृति पर नियंत्रण करने की अत्यन्त आवश्यकता है ।
आप ब्रह्मचर्य की साधना कर लेँ , किँतु आँखोँ पर अंकुश न रखेँ , बुरे-बुरे दृश्य देखा करेँ , तो क्या लाभ ? उधर आँखोँ मेँ जहर भरता रहे तथा संसार के रंगीन दृश्योँ का मजा लेता रहे और इधर ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखने का मंसुबा भी किया जाए , यह कैसे सम्भव है ?
जब किसी मोहक छवी पर दृष्टि परे तो तुरंत अपने ईश्वर पर मन को रुकाये । अगर कोई मोहक स्त्री आपसे बात करने आये तो उसका चेहरा न देखकर अपने ईश्वर को बाहरी ध्यान करके वार्त्तालाप करेँ ।
प्रथम चक्षु इन्द्री कहं साधे ।
गुरु गम पंथ नाम अवराधे ॥
अर्थात् सद्गुरु कबीर साहेब समझाते हुए कहते हैँ कि साधना के क्षेत्र मेँ साधु सबसे पहले आंख-इंद्री को साधे , वह कहीँ चलायमान न हो , किसी विषय पर अटके-भटके नहीँ , उसे भली-भाँति अपने वश मेँ करे और गुरु-ज्ञान के मार्ग पर चलता हुआ सदैव ईश्वर का सुमिरन करे ।
सुन्दर रूप चक्षु की पूजा ।
रूप कुरूप न भावे दूजा ॥
रूप कुरूपहि सम कर जाने ।
दरस विदेह सदा सुख माने ॥
सुंदर रूप देखने मेँ आँखोँ को प्रिय लगता है , इसीलिए सुंदर रूप को आँख की पूजा कहा गया है और जो दूसरा रूप कुरूप है वह देखने मेँ नहीँ भाता , अतः उसे कोई देखना नही चाहता ।
साधु को चाहिए कि वह नाशवान देह के सुंदर रूप एवं कुरूप को एक समान समझे और स्थुल-दृष्टि से ऊपर उठकर अंतर्दृष्टि से देह के भीतर जो विदेह रूप अविनाशी शाश्वत एवं चेतन सत्यात्मा विद्यमान है , उसके दर्शन से सुख माने , अर्थात् सब देहोँ के भीतर समान आत्मा जानकर प्रेम भाव से सबका सम्मान करे

Online : 1 | Today Visitors : 1 | Total Visitors :368
/body>
यंत्र विवरण :
आई॰ पी॰ पता : 18.223.172.224
ब्राउज़र छवि : Mozilla
ऑपरेटिँग सिस्टम विवरण : Mozilla/5.0 AppleWebKit/537.36 (KHTML, like Gecko; compatible; ClaudeBot/1.0; +claudebot@anthropic.com)
आपका देश : United States
समय तथा तिथि : 2024-05-04 06:26:09
फिडबैक उपयोग की शर्तेँ
© 2018 spiritual