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शास्त्र के अनुसार ब्रह्मचर्य का तात्त्विक अर्थ



ब्रह्मचर्य मूलत: संस्कृत भाषा का शब्द है और व्याकरण के अनुसार जब उसका विश्लेषण करते हैँ , तब दो शब्द हमारे सामने आते हैँ - ' ब्रह्म ' और ' चर्य ' । इन दो शब्दोँ से मिलकर एक ' ब्रह्मचर्य ' शब्द बना है । ' ब्रह्म ' का अर्थ है - शुद्ध आत्म भाव ; और 'चर्य' का अर्थ है - गति करना । 'ब्रह्म' की ओर चर्या करना , गति करना या चलना ब्रह्मचर्य है । मतलब यह कि ब्रह्म के लिए , परमात्म भाव के लिए चलना , गति करना . उस ओर उन्मुख(अग्रसर) होना , उसके लिए साधना करना , ईश्वरीय आचरण व दिव्य आचरण करना यही ब्रह्मचर्य का अर्थ है ।


ब्रह्मचर्य ध्यान का अंतिम फल भी है । अथर्ववेद मेँ तो वेद को भी ब्रह्म कहा गया है । अत: वेद के अध्ययन के लिए आचरणीय कर्म ब्रह्मचर्य है । जो जीवन के भव्य भवन निर्माण की आधारशीला है , उसे ब्रह्मचर्य कहते हैँ । और जो जीवन मेँ परमात्म भाव की ज्योति झलका दे , ब्रह्मचर्य है ।
योग संबंधि ग्रंथोँ मेँ ब्रह्मचर्य का अर्थ इन्द्रिय-संयम किया गया है । हाँ , ब्रह्मचर्य का अर्थ मन , वचन एवं कर्म से समस्त इन्द्रियोँ का संयम करना भी है । जबतक अपने मन के विचारोँ पर इतना अधिकार न हो जाए कि अपनी धारणा एवं भावना के विरुद्ध एक भी विचार न आए , तबतक वह पूर्ण ब्रह्मचर्य नही है । वस्तुत: सभी इन्द्रियोँ के विषयोँ से पूर्ण स्वतंत्र होना ही ब्रह्मचर्य है ।


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