Snack's 1967
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स्पर्श की आँधी से बचो , राजीमती और रथनेमि की कथा : -.



त्वचा का विषय है -
स्पर्श ।
स्पर्श कोमल , कठोर , रुक्ष , स्निग्ध , शीत , उष्ण , लघु और गुरु-भेद से आठ प्रकार माना गया है । कठोर एवं मृदु वस्तुओँ का स्पर्शन इन्द्रियोँ को उत्तेजित करता है ; ब्रह्मचर्य पर आघात पहुँचता है । स्पर्श प्रेम एवं स्नेह का आदि और अंत है । स्पर्श प्रसुप्त मनोभावोँ को जागृत करने का सबसे बड़ा कारण है । स्पर्श का मनुष्य को उत्तेजित करने मेँ इतना भारी प्रभाव है कि वर्त्तमान युग मेँ मनुष्य स्पर्शन इन्द्रिय की बाहरी चमक-दमक मेँ अपने आपको भुला बैठा है । डॉ॰ ब्लॉय कहते हैँ कि स्पर्श से मानसिक विकार उत्पन्न हो जाने का मुख्य कारण यह है कि त्वचा के ज्ञानतन्तुओँ की रचना तथा शरीर के प्रजन्न अंगोँ के तंतुओँ की रचना एक ही पदार्थ से हुई है । ठीक ही कहा गया है -
त्वचा पाणि स्पर्शई गुनई ।
इसलिए प्राणिमात्र के अन्य समस्त अवयवोँ की अपेक्षा त्वचा का प्रभाव मानसिक दुर्भावोँ को जागृत करने मेँ अधिक सफल होता है जो व्यक्ति स्पर्श की क्रूर आँधी से बच जाता है , वह उसके उन दुष्परिणामोँ से भी बच जाता है , जो उसे अन्धा बना देनेवाले होते हैँ ।
इस स्पर्श की आँधी से बाल-बाल बचना किसी वेशेष उत्तम साधक से ही संभव है । प्राचीनकाल मेँ ऐसे ही एक साधक था - राजकुमार रथनेमि ।
वैराग्य आने पर उन्होँने अपने छोटे भाई भगवान् अरिष्टनेमि के साथ संसार को छोड़ कर दिक्षा ले ली और रैवतायल गिरिनार पर्वत की अंधकार से भरी हुई गुफा मेँ जाकर ध्यान करने लगे । उनके मन से मृत्यु का भय निकल चुका था । पास ही मेँ होने वाला सिँहोँ का भीषण गर्जन भी भय का संचार नहीँ कर पाता था उसके मन मेँ । लेकिन , इतना होने पर भी वे रानी राजीमती का राग न त्याग सके । ज्योँ ही रानी राजीमती ने गुफा मेँ प्रवेश किया , उनका त्याग अंधकार मेँ बिखरने लगा । साधना के श्रेष्टतम पथ पर चलनेवाला वे साधक भटक गये और रानी राजीमती से कहने लगे -
आओ राजीमती ! अभी क्या जल्दी है । नवयौवन के मादक क्षणोँ मेँ हम तुम संसार के भोग भोग लेँ और जब उम्र ढलने लगेगी , तब फिर साधना-पथ के पथिक बन जाएँगे ।
मगर , उस समय रानी राजीमती ने कुछ भी रथनेमि से कहा , वह आज भी स्मरण रखनेयोग्य है । भगवती राजीमती ने कहा -
साधक ! यह क्या कहते हो ? क्या करने की सोचते हो ? जरा होश मेँ आओ , जरा सोचो , समझोँ और विचार करो । नहीँ तो तुम्हारे जीवन की वही दशा होगी , जो पवन से प्रताड़ित इधर-उधर दौड़ती हुई हड ( तिनके ) की होती । भ्रष्य जीवन की अपेक्षा तो मरना श्रेष्ठकर है । अनुकूलता मेँ विलास जगता है और प्रतिकूलता मेँ विवेक । रानी राजीमती के आध्यात्मिक उपदेश को सुनकर साधक रथनेमि को विवेक हो आया । वह पुनः संयम मेँ स्थिर हो गया ।
अक्सर संसार मेँ मनुष्य को जो कुछ भी अच्छी चीजेँ मिलती हैँ । बस उन्हेँ पकड़ने के लिए दौड़ पड़ता है । यह दुनिया भोग-विलास के साधनोँ से भरी हुई है । यहाँ एक-से-एक बढ़कर वस्तुएँ मनुष्य के मन को ललचाने के लिए मौजूद हैँ । भोग-विलास की दृष्टि से संसार खाली नहीँ है । ऐसी स्थिती मेँ जो भी सुन्दर और आकर्षक वस्तु मिली , उसी पर ललचा गया और उसी को भोगने की कोशिश करने लगा , तो कहाँ ठिकाना है ? फिर तो एक पागल कुत्ते की जिन्दगी की तरह उसकी जिन्दगी बर्बाद ही होने को है । इसलिये ब्रह्मचर्य की साधना करनेवाले साधक को किसी का स्पर्श करने की इच्छा मात्र भी घोर पाप समझकर उससे परहेज करना चाहिये ।
ब्रह्मचारी को स्वच्छ आसन पर अकेले शयन करना चाहिए । अपने आसन ( बिस्तर ) पर दूसरे को नहीँ लेटाना चाहिए और न दूसरे के आसन पर स्वयं ही लेटना चाहिए । किसी अन्य व्यक्ति को साथ लेकर एक शय्या पर शयन करना ब्रह्मचारी को अत्यन्त अनुचित है । यथा -

सम्भव आसन भी किसी से सटाकर नहीँ लगाना चाहिए । इस प्रकार ब्रह्मचारी सदैव अपने आसन पर अकेले ही शयन करे तथा ब्रह्मचारी को कोमय शय्या पर भी नहीँ सोना चाहिए । उपनिषदोँ मेँ तो यहाँ तक कहा है कि ब्रह्मचारी को अपने गुप्त अंगोँ का स्पर्श भी बार-बार नहीँ करना चाहिए , क्योँकि इससे भी ब्रह्मचर्य की साधना पर बुरा प्रभाव पड़ता है ।

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