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ब्रह्मचर्य शब्द का भावार्थ


पाइथेगोरस कहता है -
No man is free , who cannot command himself.
जो व्यक्ति अपने आप पर नियत्रण नहीँ कर सकता , वह कभी भी स्वतंत्र (ब्रह्मचारी) नहीँ हो सकता ।
अत: हम कह सकते हैँ कि वासना को उद्दीप्त करनेवाले साधनोँ का परित्याग ही ब्रह्मचर्य है । ' ब्रह्मचर्य ' का अर्थ केवल स्त्री-पुरुष के संयोग एवं संस्पर्श से बचने तक ही सीमित नही है । वस्तुत: आत्मा को अशुद्ध करनेवाले विषय-विकारोँ एवं समस्त वासनाओँ से मुक्त होना ही ब्रह्मचर्य है । ब्रह्मचर्य आत्मा की निर्धुम ज्योति है । अत: मन , वचन एवं कर्म से वासना का उन्मूलन करना ही ब्रह्मचर्य है ।
गाँधीजी के अनुसार स्त्री-संस्पर्श एवं संभोग का परित्याग ब्रह्मचर्य के अर्थ को पूर्णत: स्पष्ट नहीँ करता ; क्योकि यदि कोई व्यक्ति स्त्री का स्पर्श नहीँ करता और उसके साथ संभोग भी नही करता , परंतु विकारोँ से ग्रस्त रहता है ; रात-दिन विषय-वासना के बीहड़ वनोँ मेँ अन्तर्मन से मारा-मारा फिरता है , तो उसे हम ब्रह्मचारी नहीँ कह सकते । और किसी विशेष परिस्थिती मेँ निर्विकार भाव से किसी स्त्री को छु लेने मात्र से ब्रह्म-साधना नष्ट हो जाती है , ऐसा कहना भी भूल होगी । श्रीमद् रायचन्द जी ठीक ही कहा है :

निरखी ने नव यौवना ,
लेश न विषय निदान ।
गणे काष्ठ नी पूतली ,
ते भगवंत समान । ।
ब्रह्मचारी रहने का यह अर्थ नहीँ है कि मैँ किसी स्त्री का स्पर्श न करुँ ? अपनी बहन का स्पर्श न करुँ ? ब्रह्मचारी होने का भाव है कि स्त्री का स्पर्श करने से मेरे मन मेँ किसी प्रकार का विकार उत्पन्न न हो , जिस तरह कि कागज को स्पर्श करने से नहीँ होता । अस्तु , ब्रह्मचर्य अन्तर्मन कि निर्विकार दशा का ही नाम है ।

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